Tuesday, March 8, 2016

सेवा वही व्यक्ति कर सकेगा जिसमें त्याग की भावना होगी ...(The same person may serve Which will be self-sacrificing. . ..)


Image result for help to needed people

इस जगत में कोई सिर्फ अपने शरीर का उपयोग कर रहा है तो कोई शरीर के साथ बुद्धि का। कुछ ही लोग हैं जो हृदय का भी उपयोग कर रहे हैं और उनसे भी कम प्रतिशत ऐसे लोगों का है जो शरीर, बुद्धि और हृदय के अतिरिक्त आत्मा का भी उपयोग कर रहे हैं। 

इंद्रियां तो सबकी एक ही जगह हैं मगर कौन उसका कैसा उपयोग करता है, इसकी समझ ही एक प्रज्ञावान को आम आदमी से भिन्न करती है। सभी धर्मग्रंथों का सार-सूत्र एक पंक्ति में है- परमात्मा को मंगलमय जानते हुए स्वधर्म का पालन करो। परमात्मा को मंगलमय जानने का अर्थ है- जो हुआ, अच्छा हुआ, जो हो रहा है, ठीक है और जो होगा वह भी शुभ होगा। परमात्मा को मंगलमय मानने के कारण ही संत निर्भय होता है। इसी प्रकार, स्वधर्म का अर्थ है- दूसरे का दोष न देखना और यह विचार करना कि मौजूदा परिस्थिति में हम क्या कर सकते हैं। 

स्वधर्म के पांच अंग हैं- सम्यक सेवा, सम्यक प्रार्थना, सम्यक स्वीकार, सम्यक समर्पण और सम्यक शरण। सबसे ज्यादा चर्चा सेवा की होती है। सम्यक सेवा है क्या? हम समझते हैं कि अगर हम दूसरों के लिए कुछ कर रहे हैं तो वह सेवा है। मगर वह तो परोपकार है, सेवा नहीं। सेवा का एक अंग ही है परोपकार। सेवा सभी कर सकते हैं। कोई सेवा न करे, तब भी सृष्टि तो चलती ही रहेगी, किंतु बात भाव की है। पूरी व्यवस्था में एक प्रकार की अंतर-निर्भरता है। मनुष्य वह है जो मनन करे। इस लिहाज से यह उचित प्रतीत होता है कि वह सृष्टि को और अधिक गरिमा प्रदान करने में अपना योगदान दे। सहयोग का यह भाव ही सम्यक सेवा है। सम्यक सेवा यानी गोविंद का कार्य मानकर किया गया परोपकार। जब तक हम सिर्फ दूसरे की भलाई की भावना से किसी की सहायता करते हैं तब तक वह परोपकार ही है, किंतु जैसे ही हम वह सहायता या परोपकार गोविंद का काम समझकर करने लगते हैं, वह सेवा बन जाता है। हममें से प्रत्येक को कोई न कोई काम चुन लेना चाहिए और उसे गोविंद का काम मानकर करना चाहिए। 

सेवा वही कर सकता है जिसके भीतर त्याग की भावना है और जो जीवन के वृहत्तर लक्ष्यों को पाना चाहता है। 

यह सोचना गलत होगा कि सेवा नि:स्वार्थ होती है। ऐसा कोई स्वार्थ नहीं जिसमें परमार्थ निहित न हो और ऐसा कोई परमार्थ नहीं है जिसमें कोई स्वार्थ न हो। फर्क केवल मात्रा का होता है। 

सेवा का प्रतिफल है- सुख। तभी कबीर कहते हैं- राजपाट मिलने में भी वह सुख नहीं है जो गोविंद की सेवा में है। 

सेवा संतत्व की तरफ ले जाती है। इससे व्यक्ति का भक्तिमार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए, सेवा वस्तुतः दूसरे की न होकर अपनी ही होती है।

जय गुरूजी. 

In English:

(In this world no one is using just your body with no body intelligence. There are few people who are the heart and ask them to use the percentage of population that is less than the body, mind and heart are in addition to the use of the soul.

So everyone who senses the same place but how it uses, it is different from the common man to understand the intelligence. In a row-the essence of all divine scriptures nice knowing apostasy follow. Have a great sense of knowing God-the things were good, which is fine and which will also be good. Divine have a good reason to believe is fearless saint. Similarly, the second-to-nature means not to see the faults of the current situation and to consider what we can do.

There are five members of apostasy due service, proper prayer, accept proper, proper dedication and proper shelter. The service is much discussed. What is the proper service? We understand that if we are doing something for others it is a service. But he is philanthropy, service. The service is part of the philanthropy. All can serve. No services shall remain even then moving creature, but it is feeling. The whole system is a type of inter-dependence. He is a man who has to contemplate. From this perspective, it would seem reasonable that he would contribute to creation and to provide more dignity. This sense of cooperation is the right service. Govind was the work of the charity as a proper service. We just help each other out of a sense of well-being when he is philanthropy, but as soon as we begin to understand that assistance or charity work Govind, the service is created. Each of us must choose some work must be done and the work of Govinda.

The service can do the same self-sacrificing spirit and the life within which seeks greater goals.

It would be wrong to think that the service selfless occurs. There is not a charity and it contained no selfishness, there is no charity there is no selfishness. The only difference is the volume.

Forms are returned service. Kabir says that if happiness is not to go in-the kingdom is in the service of Govinda.

The service is the way to sainthood. This would pave Bktimarg person. Therefore, the service has its own reality and not the other.)

Jai Guruji.

No comments: