Saturday, April 18, 2015

इंद्रिय निग्रह ..(Sense restraint..)


इंद्रिय निग्रह के दो प्रकार हैं - अंत:करण और बहि:करण। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त-इनकी संज्ञा अंत:करण से संबंधित है। इसी तरह दस इंद्रियों की संज्ञा बहि:करण से संबंधित है। अंत:करण की चारों इंद्रियों को हम देख सकते हैं। अंत:करण की इंद्रियों में मन सोचता-विचारता है और बुद्धि उसका निर्णय करती है। कहते हैं ‘जैसा मन में आता है, करता है।’ मन संशयात्मक ही रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित्त अनुभव करता और समझता है। अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान समझते हैं, पर शास्त्र उसको स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है। बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं - ज्ञानेंद्रिय व कर्मेद्रिय। नेत्र, कान, जीभ, नाक और त्वचा ज्ञानेंद्रिय हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि आंख से रंग और रूप, कानों से शब्द, नाक से सुगंध - दरुगध, जीभ से स्वाद - रस और त्वचा से गर्म व ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी, हाथ, पैर आदि पांच कर्मेद्रिय होती हैं। इनके गुण प्रत्येक व्यक्ति समझता है। जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही जितेंद्रिय कहलाता है। जितेंद्रिय होना साधना व अभ्यास से प्रयोजित होता है। हमें इंद्रिय-निग्रही होना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय निग्रह कर लेता है वह कभी पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय-निग्रह ही मुख्य धर्म है। इंद्रियां बड़ी प्रबल होती हैं और वह मनुष्य को अंधा कर देती हैं। इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया है कि मनुष्य को युवा मां, बहन और लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए। मानव हृदय बड़ा दुर्बल होता है। यह बृहस्पति, विश्वमित्र व पराशर जैसे ऋषि-मुनियों के आख्यानों से स्पष्ट है। सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है। सच्चरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया है। जो लोग मानते हैं कि परमात्मा सभी में व्याप्त है, सभी एक हैं, उन्हें अनुभव करना चाहिए कि हम यदि अन्य लोगों का कोई उपकार करते हैं, तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है। ऐसा इसलिए क्योंकि जो वे हैं, वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश व रूप हैं तो हम यदि सबका हितचिंतन व सबकी सहायता करते हैं तो यह परमात्मा का ही पूजन और उसी की आराधना है।
जय गुरूजी

In English:

(There are two types of repression -ant sense conscience and exocrine hereof. Mind, intellect, ego and mind-their noun conscience concerns. Similarly, the ten senses noun exocrine relates to Karan. Conscience that we can see the four senses. Conscience-Vicharta senses and intellect mind thinks that his decision. Say 'comes to mind, as does. "Remains skeptical mind, the intellect is to remove the doubt. Mind perceives and understands. People generally understand ego pride, the scripture says he is a selfish sense. Exocrine portion of conscience are two senses - sensorium and Karmedriy. Eye, ear, tongue, nose and skin are sensorium. This is because the eye color and form, the word ears, nose aroma - Drugd, tongue taste - juice and the skin is hot and cold knowledge. Speech, hands, feet, etc. are five Karmedriy. Everyone understands their properties. In these senses is controlled, is called the Jitendriy. Is intended to be Jitendriy meditation and exercise. We must sense, abstemious. The man takes the sense that repression can never be defeated, because he senses debilitating human life in turn can have debilitating senses. Continence for humans is the main religion. The senses are very strong and he's the man to beat. That young man said Manusmrti mother, sister and the girl should not talk in private. The human heart is a big weak. The Jupiter, Biswmitr and Parashar sages as is clear from the narrative. Virtue may be the root of the righteous man. Integrity and ethics have been human religion. Those who believe that God is all pervading, all the ones that we should feel any obligation to the other guys, so manner he has his own favor. It's because what they have, what we are. And as such, are all part of God help all of us and that if all Hitcintn worship and the worship of God is this.)
Jai Guruji.


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