Sunday, April 24, 2016

असली आनंद ..(Real pleasure ..)


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आनंद की स्थिति में मानसिक शांति को विशेष महत्व दिया जाता है। आनंद के बारे में बताया नहीं जा सकता, बल्कि इसकी अनुभूति की जा सकती है। इस संदर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण है कि आनंद अहंकार-शून्य अवस्था है। चेतना के दो तल हैं। पहला तल व्यक्तित्व या अहंकार का है। दूसरा तल आत्मा का तल है। जहां तक व्यक्तित्व या अहंकार है, मैं-पन है, अपने होने का भाव है; वहां आनंद नहीं है। दूसरी बात, आनंद हमारा स्वभाव है। व्यक्तित्व नहीं, निजता हमारी प्रकृति है। व्यक्तित्व है परिधि, मगर निजता केंद्रीय तत्व है। आनंद अंतर्यात्र है। जब भी मिलेगा, भीतर से ही मिलेगा। चौथी बात-आनंद उन्मनी दशा है। जहां मन नहीं है, विचार नहीं है, वहीं आनंद है। संत कबीर इसी आनंद को सहज समाधि कहते हैं। विराट के साथ एक हो जाना आनंद है। जब तक हम अकेले हैं, जब तक हम द्वैत में हैं, तब तक आनंद नहीं है। जब हम विराट के साथ एकाकार होते हैं, जहां हमारी अलग सत्ता समाप्त हो जाती है-वहां आनंद है। आनंद के अनुभव के लिए अपने भीतर लौटना होगा। अंतस की यात्र शुरू होती है साक्षी से, ध्यान से। साक्षीभाव का मतलब है किसी वस्तु या विषय को साक्षी बनकर देखना। आनंद प्राप्ति का दूसरा कदम है-स्वीकार भाव। हर स्थिति को स्वीकार करना। तीसरा कदम है, सद्गुरु का साथ चाहिए। साक्षी और स्वीकार भाव तो हम स्वयं भी साध सकते हैं, लेकिन आगे की अंतर्यात्र अगर अकेले की, तो भटकने की संभावना ज्यादा रहेगी।  सद्गुरु क्या करता है? सद्गुरु आपको परम तत्व की दिशा की ओर उन्मुख करता है। सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही आनंद की असली यात्र शुरू होती है। फिर बारी आती है-प्रभु के सुमिरन की। सुमिरन ही एक दिन समाधि तक पहुंचा देता है। समाधि का अर्थ है-प्रभु से मिलन के आनंद का गहरा जाना। समाधि अहंकार, मन, विचार-इन सभी को मिटा देती है और रह जाती है केवल शुद्ध चेतना। विराट के साथ जब हम एक होते हैं, उस समाधि का नाम ही आनंद है। समाधि में गए बगैर कोई आनंद का अहसास नहीं कर सकता। वह आनंद अस्थायी नहीं है। सुख की मनोदशा में भौतिक स्थितियों को भी विशेष महत्व दिया जाता है, लेकिन आनंद मानसिक शांति की सर्वोच्च मनोदशा है।
जय गुरूजी. 

In English:

(Enjoy peace of mind in the event of special importance is given. Can not be explained away, but the experience can be. In this context it is important to know that many ego-zero curve. Consciousness has two floors. The first floor is the personality or ego. The second floor is the bottom of the soul. As far as personality or ego, I-ness, the sense of his being; There is no pleasure. Second, enjoy our nature. No personality, privacy is our nature. Personality perimeter, but is the central element of privacy. Pleasure is Inner journey. When you get will come from within. The fourth thing is-bliss Unmni condition. Where the mind is not the idea, there is bliss. This adds to enjoy spontaneous Trance of Saint Kabir. Is a pleasure to be with existence. Unless we are alone, we are in duality, then do not enjoy. When we are drab with existence, where our power ends apart and there is bliss. To go back inside to enjoy the experience. The journey begins from the inner witness, carefully. Means an object or subject the witness to witness. The second step is to accept the pleasure of receiving. To accept every situation. The third step, the master must support. And to accept the witness so we can keep ourselves, but if further End trip alone, there will be more likely to wander. What master? The master is oriented towards the ultimate reality. Enjoy the guidance of the master of the real journey begins. Then comes the turn of Lord of Remembrance. One day Remembrance mausoleum is reached. Trance means the bliss of union with the divine, go deeper. Trance ego, mind, thoughts and erases all remains only pure consciousness. When we are one with existence, the name of the mausoleum own enjoyment. The tomb could not, without a feeling of enjoyment. He is not just a fluke. The physical conditions are especially valued in the mood, but enjoy peace of mind is the highest mood.
Jai Guruji.

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