चाणक्य कहते हैं - ‘शांति के समान कोई तप नहीं, संतोष से बढ़कर कोई धर्म नहीं। सुख के लिए विश्व में सभी जगह चाहत है, पर सुख उसी को मिलता है, जिसे संतोष करना आता है। एक जिज्ञासा उठती है कि संतोष है क्या? संतोष का अभिप्राय है -‘इच्छाओं का त्याग।’ सभी इच्छाओं का त्याग करके अपनी स्थिति पर संतोष करना ही सुख को प्राप्त कर लेना है। जीवन के साथ इच्छाएं, कामनाएं व आकांक्षाएं रहती ही हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि सुखी जीवन के लिए हमारी इच्छा शक्ति पर कहीं तो विराम होना चाहिए। इच्छा के वेग में विराम को ही संतोष की संज्ञा दे सकते हैं। संतोष मन की वह वृत्ति या अवस्था है, जिसमें मनुष्य पूर्ण तृप्ति या प्रसन्नता का अनुभव करता है, अर्थात इच्छा रह ही नहीं पाती। जीवन की गति के साथ संपत्ति और समृद्धि की दौड़ से वह सुख नहीं मिलता, जो संतोष रूपी वृक्ष की शीतल छांव में अनायास मिल जाता है। हम प्रयत्न और परिश्रम के फलस्वरूप प्राप्त होने वाली प्रसन्नता पर संतोष करना सीखें। निष्काम कर्म-योग, इच्छाओं का दमन, लोभ का त्याग या इंद्रियों पर अधिकार-यह सभी उपदेश संतोष की ओर ले जाने वाले सोपान ही तो हैं। भारतीय संस्कृति संतोष पर ही आधारित है। श्रम-साधना के अनंतर जिसके मस्तिष्क में संतोष आ समाया है, उसने राज्य और राजमुकुट का वैभव प्राप्त कर लिया। सच है, संतोष प्राकृतिक संपदा है और ऐश्वर्य कृत्रिम गरीबी। संतोष का आदर्श यही है कि हम इच्छाओं को सीमित रखकर सत्य व ईमानदारी से भरा श्रम करें और फल की चिंता न करते हुए उसे परमात्मा और परिस्थितियों पर छोड़ दें। प्रत्येक मानव में समाज के लिए उपयोगी बनने का भाव होना चाहिए। समाज के अनेक जीवों के लिए उपयोगी बनकर ही हम सहज में समस्त चिंताओं को निष्कासित कर सकते हैं। हमें इस तथ्य का भली प्रकार बोध होना चाहिए कि सुखी होने का भाव है-दूसरों को सुखी बनाना। मन, वाणी और कर्म से शुद्ध व्यक्तित्व ही सच्चे सुख की रसधार में सदैव स्नान करता है। संतोष मूल है और सुख उसका फल या फिर संतोष मेघ है और सुख उससे बरसने वाला जल। संतोष सुख का सबसे बड़ा साधन है, जो मस्तिष्क के झुकाव पर निर्भर करता है। यदि मन से सुख मान लिया, तो विपुल व्याधियां भी कपूर की भांति उड़ जाती हैं।
जय गुरुजी.
In English:
(Chanakya says - "Peace is not the same as a penance, no religion, up from satisfaction. All over the world looking for happiness, but happiness is the same, which is to be content. One curiosity is that satisfaction comes? -'wish Means sacrificing satisfaction. 'Satisfaction with their position by sacrificing all desires to have the pleasure to receive. With life desires, wishes and desires are there, but it is also true that the happy life must stop somewhere on our will power. The velocity of the content described in the will can break. Satisfaction or state of mind is the instinct which makes man satiety or pleasure, that does not wish to live. With the pace of life, property and prosperity do not get pleasure from race, which gets spontaneously in the cool shade of the tree form of satisfaction. We are pleased that as a result of effort and diligence to learn to be content. Selfless karma-yoga, suppression of desires, greed, power-it senses movement or towards satisfaction of all the steps are just preaching. Indian culture is based on satisfaction. Satisfaction in the brain which have subsequently entered the labor-practice, she won the state and royal splendor. True, the natural wealth and opulence artificial poverty satisfaction. The ideal is that we have limited satisfaction with the desires and the fruit of labor, full of truth and honesty to not worry and circumstances leave her divine. Every man should have a sense of being useful to society. Useful for society as many animals as we can readily expel all concerns. We must be aware of the fact that the well has the sense of being happy to make others happy. Mind, speaks always bathed in the pure juice of personality is a true pleasure. Satisfaction is original and all the fruit or the satisfaction and pleasure that the cloud with rain water. The biggest source of happiness is contentment, which depends on the inclination of the brain. Well accepted by the mind, the prolific diseases are also flying like camphor.)
Jai Guruji.
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