बचपन से एक कहावत हम सब सुनते आए हैं कि नकल करना बुरी बात है। हम सुनते आए हैं कि नकल करने के लिए भी अक्ल जरूरी है। ऐसे ही सीखते आए हैं हम। हमने सुन-सुन कर सुनना सीखा है, बोल-बोल कर बोलना व पढ़-पढ़ कर ही पढ़ना सीखा है।
बचपन से ही हम अपने आसपास के लोगों के अनुभवों से सीख कर आगे बढ़ते हैं। किसी को हम फॉलो करते हैं, तो कोई हमें फॉलो करने लगता है। सीखने व जानने की प्रक्रिया ऐसे ही आगे बढ़ती रहती है। किसी न किसी रूप में, कभी न कभी हम एक-दूसरे की नकल जरूर करते हैं। बस हमें तय यह करना होता है कि किस सीख को किस तरह से लेना है।
कुछ नया सीखने के लिए अगर हम नकल करते हैं तो अच्छा है, अन्यथा अगर हम सिर्फ नकल करते रहते हैं तब हम कुछ नया हासिल करना तो दूर, जो हमारे पास होता है उसे भी खत्म कर देते हैं। असल में नकल भी दो तरह की होती है। जब हम अपने विकास के लिए किसी दूसरे का अनुसरण करते हैं, उसकी नकल करते हैं तो उस जैसा नहीं, उससे बेहतर करने की कोशिश करते हैं। यह अच्छा है। अपनी पहचान बनाए रखने के लिए नकल को अक्ल से करना जरूरी है। लेकिन जिन्हें जीवन में सिर्फ नकल करने की आदत हो जाती है, वे कभी विश्वास के साथ कोई काम नहीं कर पाते। उनका पूरा ध्यान सिर्फ इधर-उधर देखने पर ही रहता है।
कुछ लोग आसपास आपको जरूर ऐसे मिलेंगे, उनके सामने आप कुछ भी करेंगे वे उसकी भी नकल करने की कोशिश करेंगे।
ऐसे लोगों का व्यक्तित्व असहाय जैसा होता है। वे हर कार्य में सिर्फ दूसरों से मदद की अपेक्षा करते हैं। कोई हमसे हंसकर बात करता है तो हम भी अच्छे से बात कर लेते हैं। कोई ठीक से बात नहीं करता, तो हम भी उससे वैसा ही व्यवहार करते हैं। यहां तक कि जब कोई उपहार देता है तो उतना ही कीमती उपहार उसे लौटाते हैं। जब दूसरा हमें किसी विशेष अवसर पर विश करता है तो हम भी कर देते हैं, नहीं करता तो सोचते हैं- उसने नहीं किया तो हम ही क्यों करें।
कभी सोचा है कि कितनी नकल करते हैं हम? हर कदम पर दूसरे के अनुरूप ही तो चलते हैं। लेकिन नकल व्यक्तित्व व उसकी पहचान ही खत्म कर देती है। अगर आपसे कोई बुरा बर्ताव करे तो उसके साथ भी अच्छा बर्ताव कीजिये। ऐसा विचार लाना कि उसने नहीं किया तो हम भी न करें, यह भी नकल ही हुई।
कभी बिना नकल किए अच्छा व्यवहार कीजिए, देखिए फिर आपके साथ भी अच्छा व्यवहार होगा। नकल करना तो सभी का स्वभाव है। और अच्छे लोग अच्छे चीजो की नक़ल कर के अपना और समाज का विकाश कर जाता है.
जय गुरुजी.
In English:
(We have all heard the saying that a child's bad copy. We have heard that it is necessary to duplicate any sense. We just have to learn. We have learned to listen listening-listening, speaking, reading-speaking learned to speak and read and read.
From childhood we learn from the experiences of people moving around. When someone we follow, so that seems to follow us. Learning and knowing the process is similar moves. In some form, sometimes we do have another copy. Just what we need to learn how to fix it is to take.
So if we are to learn something new copy is good, otherwise we are just imitating So far we have achieved something that happens to us will finish it. There are actually two types of copy. When we follow the development of another, when the copy is not like that, try to do better than that. This is good. Copy to maintain their identity must rationally. But to whom life is just getting used to copy, they can not ever work with confidence. The focus is on just see around.
Some people will like you around the course, you will do anything to them, they will try to duplicate it.
The personality is like helpless people. They all work just expect help from others. No matter if we laughed and we will talk to the good. Does not have any right to speak, we also behave like him. If a gift is even more precious gift to her return. The second is specific to a particular occasion we do, we do, namely, he does not think why we do not.
Ever wondered how many copies we? Consistent with each other, then go to step. But copying is eliminated personality and identity. If you're good with a rude attitude to it. If he did not get the idea that we do not, it was copied.
Do good behavior without ever having to copy, would look nice again with you. Copying is the nature of all. And good people doing good mimic visitation by Vikash is his and society.)
Jai Guruji.
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