मनुष्य का जीवन सुख और दुख में उलझा रहता है। ऐसा कोई नहीं जिसके जीवन में सुख हो
और दुख न हो या केवल दुख हो, सुख न हो। व्यक्ति चाहता सुख है, लेकिन दुख भी उसके
साथ-साथ बाय वन गेट वन फ्री की तरह आ ही जाता है। हर व्यक्ति की तलाश सुख की होती
है। वह दुख नहीं चाहता, लेकिन रहस्य यह है कि हर सुख के नीचे दुख छुपा होता है।
जैसे हम कोई चीज खरीद कर लाते हैं, तो उसका टूटना भी हम साथ ही खरीद लेते हैं। फिर
जब वह टूटती है तो दुखी होते हैं। ऐसे ही सुख खरीदते हैं, लेकिन दुख उसके साथ आ ही
जाता है।
जब हम किसी सुख का भोग करते हैं, तो मन ही नहीं तन भी उस के अनुभव
से खिल जाता है। उस सुख के प्रारंभ में जो अनुभूति होती है, वह सुख की पराकाष्ठा
होती है। फिर वह धीरे-धीरे कम होता चला जाता है। एक समय ऐसा आता है कि उस सुख का
साधन सामने तो होता है, लेकिन मन खुश नहीं रह पाता। इसका मतलब है कि वह क्षणिक था।
मन में वह लंबे समय तक इसलिए नहीं टिक पाता, क्योंकि सुख हमारी स्वाभाविक अवस्था
नहीं है। हमारी अस्वाभाविक अवस्था कुछ समय के लिए तो रहती है, लेकिन फिर बदल जाती
है।
एक दूसरा सुख भी होता है, जिसे परम सुख या अक्षय सुख कहा जाता है।
अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय न हो। ऐसा सुख जो हमेशा एक जैसा बना रहे।
बाहर परिस्थिति कोई भी हो, लेकिन उसका असर हमारे ऊपर न आए। इसी अक्षय सुख को आनंद
कहते हैं। जैसा सुख इंद्रियों के स्तर पर होता है, वैसे ही आनंद विवेक और ख्याति
स्तर पर आता है।
जब यह अवस्था आती है तब साधक को वैसे ही सुख का अनुभव होने
लगता है जैसे किसी सुख के भोगने के प्रारंभ में होता
है। लेकिन यह आनंद
आता-जाता नहीं, हमेशा बना रहता है। इसी में भक्त मस्त रहते हैं। भीतर का आनंद मिल
जाए तो बाहर की चीजों से मिलने वाला सुख बौना हो जाता है।
आनंद चाहिए तो
इसके लिए सुख और दुख से ऊपर उठना होगा। सुख की चाहत है तो आनंद नहीं मिलेगा। तपस्या
यही है कि सुख-दुख में समान रहो। गुरु के बताए मार्ग पर चलते रहें, पाएंगे कि
धीरे-धीरे आप एक ऐसी अवस्था में आ रहे हैं जब हर पल एक अनजानी खुशी का अहसास बना
है। यही आनंद की अवस्था होगी। लेकिन यह आनंद बिना गुरु कृपा के मिलना मुश्किल है।
Jai Guruji.
Email: birendrathink@gmail.com
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