Wednesday, August 20, 2014

अपने आप में संतुष्ट रहने वाला परमसुखी बन जाता है ....


महात्मा बुद्ध की सभा जुड़ी हुई थी। प्रश्न हुआ- इस परिषद में सबसे ज्यादा सुखी कौन है/ बुद्ध ने कहा- अंतिम पंक्ति में जो फटे-पुराने कपड़े पहने बैठा है, वह सबसे ज्यादा सुखी है। फिर प्रश्न हुआ कि वह तो इतना गरीब है, सबसे ज्यादा सुखी कैसे है/ बुद्ध ने कहा- उसके मन में कोई आकांक्षा नहीं है, इसलिए वह सुखी है। दुखी वह होता है, जिसके मन में कामनाएं रहती हैं। परीक्षण के लिए सभासदों से पूछा गया आपको क्या चाहिए/ किसी ने कहा मुझे धन चाहिए। किसी ने कहा मुझे संतान चाहिए। किसी ने कहा मुझे मकान चाहिए। किसी ने कहा ऊंचा पद चाहिए। कोई न कोई कामना सबके मन में थी। 

जो व्यक्ति अपने आप में संतुष्ट रहता है, वह परमसुखी बन जाता है। जब धन की लालसा बढ़ जाती है, तब व्यक्ति की क्या स्थिति बनती है, वह कितना दुखी बन जाता है। तीन लोक का नाथ कौन बन सकता है/ तीन लोकों का स्वामी वह बनता है जो अकिंचन बन जाता है। जिसके पास कुछ नहीं, सब कुछ त्याग दिया। जिसके पास कुछ है, वह कुछ का स्वामी होता है। जिसके पास एक लाख रुपये की संपत्ति है, वह एक लाख का स्वामी है। उससे ज्यादा का नहीं। किंतु अकिंचन तो सबका स्वामी है। योगियों के द्वारा गम्य, योगियों के द्वारा ज्ञात एक रहस्य है तीन लोकों का नाथ बनने का। और जो तीन लोकों का नाथ बन गया वह फिर परमात्मा बन जाएगा। साधु जो परमात्मा का प्रतिनिधि होता है। जिसने परिग्रह का त्याग कर दिया, भोगों का त्याग कर दिया, हिंसा आदि का त्याग कर दिया, वह मानो परमात्मा का ही दूसरा रूप है। 

शास्त्रकार ने ठीक कहा है कि मुक्ति के द्वारा आदमी अकिंचनता को प्राप्त हो जाता है। जो अकिंचन है, उसके पास अर्थलोलुप लोग प्रार्थना नहीं करते। गृहस्थों के पास पैसा है। उनके पास कोई चंदा लेने भी आ सकता है। किंतु हम साधुओं से कौन चंदा मांगेगा/ हां, इतना तो कह सकते हैं कि आपके काफी भक्त हैं। 

आप कोई इशारा कर दें तो वे हमें चंदा दे देंगे। कोई ऐसी मांग भी कर सकता है कि आप लोग त्यागी हैं, महात्मा हैं, आप ऐसा कोई मंत्र बता दें या ऐसा आशीर्वाद दे दें, जिससे हमें पैसा मिल जाए। साधु के पास एक ऐसी चीज होती है जो हर किसी के पास नहीं होती, और वह है अध्यात्म की साधना, त्याग और संयम की साधना। त्यागी और संयमी साधु के पास कोई पैसा मांगने नहीं आता। हां, कोई पैसा देने के लिए आ जाता है। साधु अकिंचन हो, यही अपेक्षित है। मुक्ति के द्वारा वह चेतना जागृत हो जाती है जहां धन और पदार्थ के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है। 

Jai Guruji

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