Friday, August 22, 2014

प्रेम के बीच ही मनुष्य का पूरा फूल खिल सकता है ...


मनुष्य के लिए हिंसा एक बीमारी है, लेकिन पशु के लिए नहीं। पशु के लिए हिंसा स्वभाव है। उसके तल पर अहिंसा की कोई संभावना नहीं है, इसलिए हिंसा का उसे कोई बोध भी नहीं है। हिंसा पशु के लिए स्वाभाविक है। अहिंसा असंभव है। मनुष्य के लिए हिंसा पशु से मिला हुआ संस्कार है। लेकिन उसकी विकसित चेतना के लिए रोकने वाली बीमारी है। चेतना जैसे ही विकसित होती है, वैसे ही उसका अतीत भी उसके लिए जंजीरें बन जाता है। जो विकासमान है, उसके लिए रोज ही उसका ‘कल’ बंधन बन जाता है। इसलिए जिसे विकास करना है, उसे रोज अपने कल को तोड़कर आगे बढ़ जाना पड़ता है। जो अपने अतीत को मिटाने के लिए राजी नहीं है, वह विकसित होने से इनकार कर रहा है। 

मनुष्य का अतीत है, उसकी पशुता, उसका भविष्य है, उसका परमात्मा होना। लेकिन जो पशु को अतिक्रमण न कर पाए, तो वह परमात्मा के मंदिर में प्रवेश भी नहीं कर सकता। जिसे भविष्य को उपलब्ध करना है, उसे रोज अतीत के प्रति मरना होता है। जो अतीत के प्रति नहीं मर पाता, वह बीमार हो जाता है। वह रुग्णता वैसी ही है, जैसे एक छोटे बच्चे को पहनाए गए कपड़े। बच्चा जवान होने पर भी उन कपड़ों को शरीर से उतारने से इनकार करे, तो शरीर रुग्ण हो जाए। शरीर विकसित होने के साथ ही कपड़ों की बदलाहट जरूरी है। 

पशुता मनुष्य का अतीत है। हम सभी उस यात्रा से गुजरे हैं जहां हम पशु थे। वैज्ञानिक भी कहते हैं और जो आध्यात्मिक हैं, वे भी कहते हैं। डार्विन ने तो थोड़े ही समय पहले ही घोषणा की कि मनुष्य पशु से आया है। लेकिन महावीर ने, बुद्ध ने, कृष्ण ने तो हजारों वर्ष पहले यह घोषणा की थी कि मनुष्य की आत्मा पशु से विकसित हुई है। अगली कड़ी पर कदम रखने के पहले उसे पिछली कड़ी को तोड़ देना पड़ेगा। 

मनुष्य एक संक्रमण है, एक बीच का सेतु है- जहां से पशु परमात्मा में संक्रमित और रूपांतरित होता है। लेकिन अतीत बहुत वजनी होता है, क्योंकि परिचित होता है। उससे छूटना इतना आसान नहीं है। 

ऐसा मालूम होने लगता है कि हमारा अतीत ही हम हैं। लाखों साल बीत गए जब कभी आदमी गुहा-मानव था, पहाड़ों की कंदराओं में रहता था- जहां न आग थी, न रोशनी का कोई उपाय था। उस वक्त रात के अंधकार से जो भय मनुष्य के मन में समा गया था, वह आज भी उसका पीछा कर रहा है। जिस दिन से पशु को छोड़कर मनुष्य मनुष्य हुआ है, उसी दिन से अहिंसा उसके दायित्व का हिस्सा हो गई। मनुष्य का फूल खिल ही नहीं सकता हिंसा के बीच। प्रेम के बीच ही उसका पूरा फूल खिल सकता है। 


Jai Guruji.

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