Tuesday, June 3, 2014

हैरान करती मजबूरी ...

Balveer punj kee ek report :
प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह के अनुच्छेद 370 पर दिए बयान के बाद पूरे देश में इस पर बहस चल रही है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने धमकी दी है कि या तो अनुच्छेद 370 रहेगा या जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा। इसका क्या निहितार्थ है? क्या जम्मू-कश्मीर किसी परिवार विशेष की निजी जागीर है? संविधान सभा में जम्मू-कश्मीर को दिए जा रहे विशेष दर्जे पर कड़ी प्रतिक्रिया हुई थी। उसके जवाब में पं. नेहरू द्वारा बिना मंत्रलय के मंत्री बनाए गए प्रशासनिक अधिकारी गोपाल स्वामी आयंगर, जिन्हें जम्मू-कश्मीर के विलय का काम सौंपा गया था, ने यह स्पष्ट किया था कि युद्ध और बगावत के हालात होने के कारण ऐसी ‘अस्थायी व्यवस्था’ की जा रही है। अनुच्छेद का शीर्षक-‘जम्मू-कश्मीर राज्य के मामले में अस्थायी प्रावधान’ भी इसकी पुष्टि करता है। ऐसे में इस अनुच्छेद को शाश्वत बनाए रखने की क्या मजबूरी है? अनुच्छेद 370 को हटाने पर हो रहे विरोध को समझने के लिए उसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा। देश के विभाजन के दौरान देशी रियासतों को भौगोलिक आधार पर भारत या पाकिस्तान में विलय करने की छूट थी। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने 27 अक्टूबर, 1947 को पत्र लिखकर भारत में विलय की स्वीकृति दे दी थी। भारत में जो भी रजवाड़े मिले उनके क्षेत्रों को वही संवैधानिक दर्जा मिला जो भारतीय गणराज्य के अन्य राज्यों को मिला था। उनके नागरिकों को वही अधिकार मिले जो अन्य राज्य के नागरिकों को मिले थे, किंतु जम्मू-कश्मीर के मामले में जवाहर लाल नेहरू के अधीन तत्कालीन सत्ता अधिष्ठान ने अदूरदर्शिता बरती। जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोड़कर 565 रियासतों ने स्वेच्छा से भारत में शामिल होने की स्वीकृति दी थी। जूनागढ़ का नवाब जन-विद्रोह के कारण स्वयं पाकिस्तान भाग गया था। किंतु महाराजा हरि सिंह के साथ व्यक्तिगत वैरशोधन के लिए नेहरू ने शेख अब्दुल्ला का साथ देने की गलती की। विलय पर महाराजा की सहमति मिल जाने के बावजूद केंद्र हस्तक्षेप करने में हीलाहवाली करता रहा। हैदराबाद के नवाब को जमीन पर लाने वाले सरदार पटेल के हाथ से कश्मीर मसला छीनकर नेहरू ने अपने पास रख लिया। आज भी कश्मीर में अलगाववाद है तो इसमें अनुच्छेद 370 का बड़ा योगदान है। भारत के रक्तरंजित विभाजन के ठीक बाद 22 अक्टूबर, 1947 को कबीलाइयों के वेष में पाकिस्तान की सेना ने जम्मू-कश्मीर रियासत पर आक्रमण कर दिया था। रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह ने भारत से सैन्य सहायता की अपील की। भारतीय सेना दुश्मनों को परास्त करती हुई आगे बढ़ रही थी कि अचानक 1 जनवरी 1949 को नेहरू ने इकतरफा युद्धबंदी की घोषणा कर दी। जम्मू-कश्मीर के जो हिस्से पाकिस्तानी सेना की मौजूदगी वाले क्षेत्र में रह गए, उन पर आज पाकिस्तान का कब्जा है और वहां भारत को लहूलुहान करने के लिए जिहादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। बाद में जम्मू-कश्मीर का मसला नेहरू संयुक्त राष्ट्र में ले गए, जहां वह आज भी लंबित है। जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद नेहरू ने राज्य की कमान शेख अब्दुल्ला को सौंप दी, जो खुद को ‘सदरे रियासत’ घोषित कर अपनी महत्वाकांक्षा सींचने लगे। वे विशेष राज्य का दर्जा और ‘दो प्रधान, दो विधान और दो निशान’ के लिए नेहरू पर दबाव डालने लगे। लंबी बहस के बाद जो सहमति बनी उसे दिल्ली समझौता (जुलाई, 1952) कहा गया। इसके अंतर्गत अवशिष्ट और समवर्ती शक्तियां राज्य के अधीन रहीं, विशेष नागरिकता अधिकार राज्य का अधिकार बना रहा। राष्ट्रीय तिरंगे के साथ एक अलग झंडा फहराने की अनुमति दी गई। इन व्यवस्थाओं के लिए भारतीय संविधान में अनुच्छेद 370 का समावेश किया गया। अनुच्छेद 370 के अंतर्गत यह प्रावधान है कि रक्षा, विदेशी व संचार मामलों के अलावा संघ व समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर भारतीय संसद राज्य सरकार की सहमति के बिना कानून नहीं बना सकती है। भारतीय गणराज्य के स्वरूप पर आघात करने वाले इस प्रावधान का जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कड़ा विरोध किया था। 7 अगस्त, 1952 को डॉ. मुखर्जी ने कहा था, ‘‘आप जो करने जा रहे हैं वह भारत को विखंडित कर देगा। यह उन लोगों को मजबूत कर सकता है जो यह विश्वास करते हैं कि भारत एक देश नहीं, बल्कि भिन्न राष्ट्रों का समूह है।’’ जम्मू-कश्मीर में प्रवेश के लिए तब परमिट लेना पड़ता था। देश की अस्मिता व संप्रभुता के साथ हो रहे खिलवाड़ का प्रतिकार करने के लिए डॉ. मुखर्जी ने बिना परमिट केजम्मू जाने का निर्णय लिया। डॉ. मुखर्जी 11 मई, 1953 को जम्मू की सीमा में स्थित रावी के पुल पर पहुंचे तो कठुआ के पुलिस सुपरिंटेंड ने उन्हें राज्य की सीमा में न घुसने का आदेश दिया। डॉक्टर साहब ने इसे मानने से इन्कार कर दिया, जिस पर उन्हें गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया। नजरबंदी के 43वें दिन अर्थात 23 जून, 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गई। डॉ. मुखर्जी की शहादत आज भी एक रहस्य है। डॉ. मुखर्जी के बलिदान के बाद ‘दो प्रधान, दो निशान’ विभिन्न प्रावधानों के अंतर्गत समाप्त हो गए, किंतु अनुच्छेद 370 के माध्यम से ‘दो विधान’ अब भी कायम है। भारत के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में कई वर्षो तक रहने के बावजूद यह अधिकार नहीं है कि वे वहां के स्थायी निवासी बन सकें और वहां जमीन या मकान खरीद सकें। उन्हें राज्य विधानसभा, स्थानीय या पंचायत के चुनावों में मतदान करने का अधिकार नहीं है। वहीं जम्मू-कश्मीर के नागरिक को देश के किसी भी भाग में बसने और कारोबार की छूट है। जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात की घोषणा नहीं हो सकती, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 360 वहां लागू नहीं होती। धारा 356 के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति को अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं करने वाली राज्य सरकार को बर्खास्त करने का अधिकार है। जम्मू-कश्मीर के मामले में राष्ट्रपति संवैधानिक संकट में भी राज्य में हस्तक्षेप करने के अधिकारी नहीं हैं। सन 1956 में भारत सरकार ने संविधान में सातवां संशोधन कर जम्मू-कश्मीर को अपना अभिन्न अंग बना लिया था। नेशनल कांफ्रेंस की कुटिल मंशा इसे निरस्त कराने की है। इसके समाप्त होते ही राष्ट्रपति के सभी अध्यादेश, संवैधानिक संशोधन, संसद के अधिकार और सर्वोच्च न्यायालय का नियंत्रण अपने आप समाप्त हो जाएगा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 356 भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि वह किसी राज्य में संघ का शासन लागू करे। वास्तव में अनुच्छेद 370 हटाने के विरोध में कश्मीर घाटी के अलगाववादी मुखर हैं, जिन्हें पाकिस्तान का प्रश्रय प्राप्त है। जम्मू और लद्दाख के लोग इसे अविलंब निरस्त करने के पक्षधर हैं। अनुच्छेद 370 को हटाए बिना कश्मीरी पंडितों की घर वापसी संभव नहीं है। देश की जनता जम्मू-कश्मीर को देश की मुख्यधारा में शामिल करने की हिमायती है। अनुच्छेद 370 का हटना देशहित में है, इससे सांप्रदायिक सौहार्द बढ़ने के साथ राज्य का समेकित विकास संभव है।

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