लोभ-लालच से आच्छादित मन, मृग-मरीचिका में भटकता रहता है, पर वह दूसरों को नहीं, बल्कि स्वयं को ठगता है। धोखा देने के चक्कर में स्वयं धोखा खाता है। दूसरों को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ जाते हैं और वे रिसते रहते हैं। जहां लालच और लोभ की वृत्ति ज्ञात होने पर स्वजन और मित्रों का स्नेह भंग हो जाता है, वहीं लालच की विसंगति खुलने से स्वयं को भी आत्म-ग्लानि के साथ लच्जित होना पड़ता है। लालची और लोभी व्यक्ति अपने कपट-व्यवहार को कितना ही छिपाये देर-सबेर प्रकट हो ही जाता है। आज का मानव बहुरूपिया बन गया है, उसका स्वभाव जटिलताओं का केंद्र बन गया है। हर किसी के साथ और हर स्थान पर लोभ और लालच से पेश आता है। यहां तक कि भगवान के आगे भी वह अपनी लोभी बुद्धि का कमाल दिखाए बगैर बाज नहीं आता। एक व्यक्ति देवी के मंदिर में जाकर मनौती मांग रहा था, नि:संतान था। इसलिए उसने प्रार्थना की हे देवी! मुङो पुत्र की प्राप्ति हो जाए, मैं सोने की पोशाक चढ़ाऊंगा। कालांतर में पुत्र की प्राप्ति हो गई, उसका लोभ-लालच प्रबल हुआ। उसने बच्चे का नाम ही ‘सोने लाल’ रख लिया। एक कपड़े का टुकड़ा ला ‘झबला’ सिलकर बच्चे को पहनाया। फिर वही देवी को भेंट करते हुए कहा-देवी मां वायदे के अनुसार ‘सोने की पोशाक दे रहा हूं, बच्चे पर कृपा-दृष्टि रखना।’ यह मात्र एक दृष्टांत है, परंतु आज व्यक्ति हर समय, हर क्षण लोभ-लालच में लिप्त है। कहा जाता है सर्प टेढ़ा-मेढ़ा वक्रता में चलता है, परंतु अपने ‘बिल’ में वह सीधा जाता है, परंतु मानव अपनी वक्रता, कूटनीति कभी नहीं छोड़ता। वह मायाजाल बुनता ही रहता है। धर्मात्मा का नाटक कर दो नंबर में अर्थोपार्जन करना अब सामान्य सी बात है। ऐसे ही व्यक्तियों को ‘बगुला भगत’ कहा गया है। मायाचारी और लोभी बदल-बदल कर छल-कपट के व्यवहार से पाप कमाता है। वह अपनी कुटिलता, छल, कपट, धोखेबाजी से क्षणिक सफलता पा भी ले, परंतु अंततोगत्वा कष्ट ही उठाता है। ऐसे व्यक्ति शंकाशील रहने के कारण भयभीत रहते हैं। वैसे कहावत भी है-काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। अर्थात मायाचार, लोभ-लालच स्थायी सफलता नहीं दे सकते और जब बेईमानी का भांडा फूटता है, तो अपयश की चिंगारी दूर-दूर तक तपन से झुलसाती है। यह कुटिलता लोक-परलोक दोनों में ही दुखद है।
जय गुरूजी.
In English:
(Greed greed permeated the mind wanders in a mirage, but for others, not themselves have Tgta. Is trying to deceive themselves cheated. Others deceive themselves and they fall into the soul of blisters are drips. Having known the instinct of greed and avarice of the affection is dissolved kinsfolk and friends, the lure of the inconsistency of the opening itself also has to be self-slanderously Lchjit. How greedy and grasping person fraudulence appear sooner or later is bound to the obscure. Today's man has become protean, his temperament has become the center of complications. With everyone and treats everywhere greed and greed. Even before God, he does not refrain without showing his amazing intellect grasping. A person go to the temple of the goddess was seeking appeasement, childless was. So he prayed, Oh My Goddess! Turn to be a son, I will give gold dress. Later became a son, his greed and greed prevailed. She named the child as 'red gold' took. Bring a piece of cloth, "pullovers" baby wearing a stitch. Then he presented to the goddess Devi, as promised, saying, "I am giving gold dress, lay the child upon-vision." This is just one instance, but this person all the time, every moment to indulge in greed and greed . Uneven curvature called the snake moves, but his "burrow" He is straightforward, but the curvature of the human, never leaves diplomacy. Weaving the illusion remains. Saint pretending to moneymaking two numbers is common now. Such as individuals' Heron Bhagat said. Mayachari of deception and self-shifting behavior earns sin. His cynicism, deceit, treachery, deceit can take momentary success, but eventually picks trouble. Individuals are afraid of being diffident. The saying is also not repeated spiraling wooden pot. Mayachar ie, greed and greed and dishonesty can not lasting success comes out of, so far as the heat from the embers of opprobrium is Jhulsati. It is tragic for both the next world public cynicism.)
Jai Guruji.
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