जब भी समृद्धि बहुत बढ़ जाती है तो युद्ध अनिवार्य हो जाता है। उसके कारण हैं। क्योंकि जितना ही आदमी बाहर समृद्ध हो जाता है, भीतर दरिद्र हो जाता है। और जितना ही भीतर दरिद्र हो जाता है घृणा, वैमनस्य, क्रोध उसमें बढ़ जाते हैं।
प्रेम, करुणा, दया, ममता कम हो जाती है। प्रेम और करुणा और दया और ममता तो भीतर की समृद्धि के लक्षण हैं। जब भीतर आदमी दरिद्र होता है, तो हिंसा बढ़ जाती है। हिंसा का अंतिम परिणाम युद्ध होगा, विनाश होगा।
समृद्धि शिखर पर थी, आदमी भीतर दरिद्र था। वह आदमी भीतर जो दरिद्र था, वह हिंसा के लिए तत्पर था। आज पश्चिम पूरी तरह उसी हालत में है, जहां महाभारत के समय पूरब था।
कुछ आश्चर्य न होगा कि पश्चिम को तीसरे महायुद्ध से न बचाया जा सके। कोई आश्चर्य न होगा। बहुत संभावना तो यह है कि पश्चिम विनाश करके ही रुकेगा। आदमी भीतर दरिद्र है। दीन है। हिंसा, क्रोध से भरा है। विनाश से भरा है।
रोम में एक पागल आदमी ने, कुछ दिन पहले जीसस की एक मूर्ति को तोड़ दिया। अब जीसस की मूर्ति को तोड़ देने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। जब उस आदमी से पूछा गया कि क्यों उसने तोड़ दिया? तो उसने कहा कि मुझे तोड़ने में बहुत आनंद आया। अगर मेरी जान भी ले ली जाए अब इसके बदले में, तो मुझे कोई चिंता नहीं है।
उस मूर्ति को लाखों लोग प्रेम करते थे। वह अपने तरह की अनूठी मूर्ति थी। उस मूर्ति को तोड़कर उसने करोड़ों लोगों के हृदय को तोड़ने की कोशिश की है। यह कहता है, इसे आनंद मिला!
अगर आज हम पश्चिम में देखें, तो विनाश का आनंद बढ़ता जाता है। सैकड़ों हत्याएं हो रही हैं, सिर्फ इसलिए कि हत्या करने में लोगों को मजा आ रहा है। सैकड़ों लोग आत्मघात कर रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि मिटाने का एक रस, एक थ्रिल तोड़ देने की, समाप्त कर देने की। तो जब कोई अपने को मारता है तो स्वतंत्रता का अनुभव होता है। पैदा आप हो गए, आपसे कोई पूछता नहीं। आपकी कोई राय नहीं ली जाती। यह परतंत्रता है निश्चित ही। स्वतंत्रता कहां है फिर? अगर विध्वंस स्वतंत्रता बन जाए और आत्मघात स्वतंत्रता बन जाए, तो सोचना पड़ेगा कि आदमी भीतर गहन रूप से रुग्ण और बीमार हो गया है, विक्षिप्त और पागल हो गया है। विध्वंस अपने आप में सुख दे रहा है। अकारण!
एक मूर्तिकार मूर्ति बनाता है। हम उससे पूछें, क्यों बना रहा है? तो वह कहता है, बनाने में आनंद है। ठीक ऐसे ही विध्वंस का भी आनंद है, रुग्ण, बीमार। और जब आदमी की आत्मा दरिद्र होती है तो विध्वंस का आनंद होता है।
जय गुरूजी.
In English:
(Prosperity is greatly increased when the war becomes inevitable. There are reasons. The man gets out of the rich, the poor gets. And is poor within the same hatred, hostility, anger grow therein.
Love, compassion, kindness, affection decreases. If love and compassion and affection are signs of inner richness. When the man is poor, the violence increases. The end result will be war violence, destruction.
Was at the peak of prosperity, the poor man was. The man inside was poor, he was ready for violence. West solely in that state, where the time of the Mahabharata, was east.
West is not surprising that some of the third world war could not be saved. Would not be surprised. So it is very likely that the West will stop only by destruction. The man is poor within. Oppressed. Violence, is full of anger. Is full of destruction.
A mad man in Rome, a few days ago broke a statue of Jesus. Now, the breaking of the statue of Jesus is not a motive. When the man was asked why he broke up? Then she said, I really enjoyed the break. Now if my life be taken in its turn, so I have no worries.
Millions of people loved that statue. He was a-kind sculpture. He broke the idol of millions of people have tried to break the heart. It says, it was bliss!
If today we see in the West, enjoy the destruction increases. Hundreds have been killed just because killing people is fun. Hundreds of people are suicidal, just because of destroying a juice, a thriller to break, to end. So when someone kills your freedom is experienced. You were born, you do not ask. Will not conduct any feedback. It certainly is subordination. Where is the freedom? If demolition is created and suicidal freedom becomes freedom, will have to think deep within the man is ill and was sick, deranged and has gone mad. Demolition is happiness itself. Causeless!
Sculptor creates a sculpture. We ask him, why is making? So he says, is to create joy. I also enjoy the same right of destruction, sick, sick. And if there is a poor man's soul would enjoy the demolition.)
Jai Guruji.
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