मैंने सुना है कि पर्यावरण अनुसंधान के संदर्भ में किसी देश में एक बार एक विशेष प्रयोग किया गया। इसके लिए लगभग दस किलोमीटर के जंगल को घेर दिया गया ताकि वहां का जीवन सहज और प्रकृति के अनुरूप रहे, इंसान का हस्तक्षेप वहां नहीं हो। फिर उस जंगल से एक गिलहरी को हटा लिया गया। कुछ समय बाद देखा गया कि जंगल के जीवन का संतुलन गड़बड़ाने लगा। कुछ वैसा ही, जैसे विशाल सभागार के कोने से गुलदस्ता हटा देने से खालीपन छा जाता है। जंगल के पेड़-पौधे, झाड़ियां, फल-फूल-पत्ते, नदी-नाले जैसे कह रहे हों कि हमारे परिवार का एक सदस्य हमसे बिछुड़ गया। शोधकर्ताओं ने उस गिलहरी को उसके पूर्व स्थान पर फिर रख दिया। उनको विचित्र अनुभव हुआ कि जंगल की रौनक वापस लौट आई।
दरअसल यह संपूर्ण सृष्टि अपने में एक परिवार है। एक जलकण से लेकर महासागर तक, रजकण से लेकर हिमालय और काकेशस की पर्वत-मालाओं तक, सूक्ष्मतम जीवाणु से लेकर विशालकाय हाथी तक। सबके सब इस सृष्टि परिवार के सदस्य हैं। इनमें न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। सब एक-दूसरे के पूरक हैं। हर किसी की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं। सबके अपने कार्यक्षेत्र हैं और उनकी अपनी कार्य-शैलियां और सामर्थ्य हैं। कवि इमर्सन ने इसी दर्शन को कविता की भाषा में कहा है,‘गिलहरी पहाड़ से कह रही है कि सबका प्रतिभा-बल अपना-अपना है। जो है, वह अच्छा है और बुद्धिसंगत है। मैं यदि अपनी पीठ पर जंगल नहीं उठा सकती तो तुम भी एक छोटा-सा अखरोट नहीं तोड़ सकते।’
यह स्थिति हर परिवार और देश व समाज की है। इसलिए कार्य-सामर्थ्य अपने को अहंकार से भरने के लिए नहीं, संपूर्णता को बरकरार रखने के लिए है। जितने भी जीव-जंतु हैं, ये सब सृष्टि-परिवार के सदस्य हैं। इन सब की अपनी उपयोगिता है। किसी को भी क्षुद्र या निरर्थक मानना उचित नहीं। सृष्टि-व्यवस्था में सबकी जरूरत होती है। यही बात मनुष्य-समाज पर भी लागू है। लेकिन हमारा जो अहं है, वह ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा के भेद से निकल नहीं पा रहा है। यह एक तुच्छ अहंकार है जो असहयोग को प्रश्रय देता है। इससे मुक्त होकर हम सृष्टि का अध्ययन करें तो पाएंगे कि यह कितनी सुंदर है। हर प्राणी कितना अद्भुत और अनुपम है।
शायद इसी अनुभव से गुजरते हुए भगवान महावीर ने कहा था,‘परस्पर सहयोग, उपकार और पारस्परिक प्यार ही जीवधारियों का आधार है।’ हम सब भी अनुभव की नजर से अगर समाज और सृष्टि को देखने लगेंगे तो इसका संपूर्ण अर्थ मिल जाएगा। फिर हर किसी की अर्थवत्ता हमारे समक्ष आने लगेगी और वह कितना मूल्यवान है, इसका बोध हमें होने लगेगा।
जय गुरूजी.
In English:
(I hear that the environment in a particular country in terms of research were used. Approximately ten kilometers of the forest that surrounded the life comfortable and are in tune with nature, human intervention is not in there. He was removed from the forest a squirrel. After a while the balance of life in the forest was seen that was very wrong. Even otherwise, such as deleting the bouquet from the corner of the huge hall is enveloped emptiness. Forest trees, shrubs, fruit-branches and leaves, as if to say that streams separated us was a member of our family. The researchers then put the squirrel in his former place. He felt quaint charm of the forest came back.
In fact, the whole universe is one family own. From a Water-particle Ocean, Raj-particle garlands from the Himalayas and mountains of the Caucasus, from the smallest bacteria to the giant elephant. All of them are members of the world family. These are not any big or small. All complement each other. Everyone has their own characteristics. All your workspace and have their own work styles and affordability. Emerson Poet in the same philosophy of poetry "The squirrel-force from the mountain, saying that all the talent is their own. That is, he is nice and streamlined. I can not take the jungle on your back so you can not break a small nut. "
This situation is all the family and the nation and society. So the task of strength not to fill your ego, is to maintain integrity. All the animals, all creation-family members. These all have their usefulness. Petty or not reasonable to assume anyone redundant. All of creation is needed in order. The same applies to human society. But ours is the ego, the hierarchy, is unable to come to distinguish the large-scaled. This is a trivial ego of promoting cooperation. If we find that the creation of a study it and look how beautiful it is. Every creature is so wonderful and unique.
Perhaps Lord Mahavira said, past experience, cooperation, mutual benefits and living beings is the basis of love. "We all experience the world through the eyes of the society, it will look to get the full meaning. Then everyone will come before us and how valuable expressiveness, its realization will start us.)
Jai Guruji.
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