Saturday, December 13, 2014

छोटे-छोटे सुख की तलाश छोड़ दें ...

जेल में मुआयना करने गए राष्ट्रपति ने कैदियों से कहा कि वे बिना किसी भय के अपनी परेशानियों के बारे में बताएं। मैं आपकी परेशानियों को दूर कर दूंगा। कैदियों में से किसी ने खराब भोजन के बारे में शिकायत की। कोई बोला मच्छर काटते हैं, बिस्तर नाकाफी हैं, नींद नहीं आती, नहाने को साबुन नहीं मिलता। कई कैदियों ने कर्मचारियों के दुर्व्यवहार और उत्पीड़न की भी शिकायत की। अंत में चुपचाप खड़े एक कैदी ने अपनी जेब से एक कागज निकाला और राष्ट्रपति के हाथों में थमा दिया। उसने कहा - बस इस कागज पर दस्तखत कर दीजिए, मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है।
राष्ट्रपति ने उस कागज को पढ़ा और हतप्रभ हो गए। वचनबद्ध राष्ट्रपति देर तक कभी उस कैदी को और कभी उस कागज को विस्मय से देखते रहे। उस कागज में लिखा था कि- इस कैदी को तुरंत रिहा कर दिया जाए। अपनी बुद्धि-कौशल से इस बंदी ने दुखों से नहीं, दुखों के आगार कारागार से ही मुक्ति की गुजारिश कर दी।




जेल की तरह ही हम भी इस संसार में कई प्रकार के दुखों से हर पल पीड़ा झेलते रहते हैं। अगर हमें भी परमात्मा मिल जाए तो हम उससे निश्चय ही अन्य कैदियों की तरह अपना शाश्वत सुख न मांग कर धन, संपदा और समृद्धि ही मांगेंगे या छोटे-छोटे दुखों के निवारण की ही याचना करेंगे। वह इसलिए कि अनेक अभावों, दुर्भावों और प्रभावों में असहनीय कष्ट झेलते हुए भी हमें संपत्ति में ही सलामती के दर्शन होते हैं।

सत्ता को ही हम अपना सुरक्षा-कवच मानते हैं। स्वजनों के शिकवे-शिकायतों में ही शांति का अनुभव करते हैं। उपयोगिता के आधार पर बने संबंध ही हमें ऊष्मा और प्रेम के दर्शन कराते हैं। संसार के मायावी जाल में ही हमें स्वर्ग-सुख की अनुभूति होती है। उस आखिरी कैदी की सम्यक सोच की तरह इस दुखमय संसार से मुक्ति की अनुपम सौगात मांगने का सुविचार और साहस हमारे अंदर आएगा ही नहीं।

क्योंकि हम इस भ्रम में हैं कि जैसे सूर्य की रश्मियों से रात का अंधकार गायब हो जाता है, वैसे ही हम अपने कृत्रिम अनुसंधानों से अपने अंदर छाई कलुषता को दूर कर लेंगे। बस यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। भौतिक सुख और प्राप्तियां तो सदा ही अपना रंग-रूप बदलती हैं। एक इच्छा पूरी हुई तो दस जरूरतें और पैदा हो गईं। सुख के संभावित मार्गों पर जितना चले, उतना दुख ही हाथ लगा।


इसका एकमात्र कारण यह है कि हम पथ से भटक कर उस अलौकिक प्रकाश को भुला बैठे हैं जिसके संबल से अर्जुन ने विजय का वरण किया था। महाभारत के समय अर्जुन के पास भी मांगने के कई विकल्प थे। लेकिन, उन्होंने सब विकल्पों को छोड़कर केवल श्री कृष्ण को मांग लिया और अकेले उनको मांग कर सब कुछ प्राप्त कर लिया।


Birendra Kr. Gupta

Jai Guruji.

Email: birendrathink@gmail.com