Friday, November 7, 2014

हमारा भविष्य वैसा ही बनता है जैसा हम गहराई से सोचते हैं .....


संत मेंहदी अब्बासी भक्तों और संबंधियों से मन की पवित्रता और शुद्धता बनाए रखने की बात कहते थे। वह मानते थे कि इसी से मनुष्य का भाग्य बनता है और उसे सुख-समृद्धि प्राप्त होती है। उनका एक संबंधी निर्धन था। इस बात का मेंहदी को भी पता था। वे कहते थे- इसमें मेरा कोई दोष नहीं, दोष तो इसके भाग्य का है। लेकिन भक्तों ने मेंहदी से उसे सुखी होने का आशीर्वाद देने को कहा।

मेंहदी ने भक्तों को आदेश दिया कि एक सोने का बटुआ पुल के बीचोबीच ऐसे स्थान पर रखें जहां से उसे बिल्कुल साफ देखा जा सके। फिर उस निर्धन संबंधी को किसी काम के बहाने पुल पर से गुजरने का मौका दिया। वह व्यक्ति पुल पर से होकर आ गया। पर उसने बटुआ देखा तक नहीं। मेंहदी ने उससे पूछा तो उसने बताया कि एक दिन पुल पर उसे अचानक ख्याल आया कि आंखें मूंदकर पुल पार किया जाए। इससे पता चल जाएगा कि कभी अंधा होने पर वह पुल पार कर सकेगा या नहीं। इसलिए वह पुल पर से आंखें बंद करके ही गुजरता था। यह सुनकर सब समझ गए कि भाग्य के बिना सामने पड़ी चीज भी दिखाई नहीं देती। लेकिन भाग्य भी उन्हीं का साथ देता है जो पुरुषार्थी होते हैं, जिनका नैतिकता में विश्वास होता है। वाल्मीकि ने कहा है- ‘पुरुषार्थ के बिना भाग्य नहीं बन सकता।’ लोग पुरुषार्थ किए बिना ही भाग्य से पाने की आशा में जीवन को निरर्थक बनाये रखते हैं। सौभाग्य की पोटली मार्ग में मिल जाने की कामना करने वाले लोग ही ज्योतिषियों के चक्कर में उलझे रहते हैं। हाथ देखने वाले जब किसी को कह देते हैं कि अभी तुम्हारा समय प्रतिकूल चल रहा है या आने वाला समय प्रतिकूल है, तब आदमी की मनस्थिति बदल जाती है। इसी तरह आज हर व्यक्ति बेवजह खुद को तनावग्रस्त बनाकर पता नहीं कौनसा सौभाग्य जीवन में उतारना चाहता है। जितना समय हम भाग्य को कोसने में लगाते हैं, या ज्योतिषियों के चक्कर या पूजा-पाठ में लगाते हैं, उतना समय यदि भाग्य के निर्माण यानी पुरुषार्थ में लगाएं तो हम स्वयं मंदिर के देवता हो सकते हैं और भाग्य हमारा पुजारी।

हमारा भविष्य वैसा ही बन जाता है, जैसा हम हृदय से सोचते हैं। हम सबके भीतर भी एक संसार फैला हुआ है और ज्यादा समय हम उसी में विचरण करते हैं। वह संसार है हमारे विचारों का संसार। हमारा जीवन या हमारा भविष्य ठीक वैसा ही बनता है, जैसा हम गहराई से सोचते हैं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज वांशिगटन स्वयं खेती करके अपने लिए अन्न उपजाते थे। गांधीजी भी अपने वस्त्र हेतु चरखा चलाते थे। 
शांति उसे ही मिलती है जिसने अपनी रोटी पुरुषार्थ के पसीने से सेक कर खाई हो।

Jai Guruji

E-mail: birendrathink@gmail.com
https://twitter.com/birujee
https://birebrathink.blogspot.in




No comments: