दो मुसाफिर ट्रेन में सफर के लिए चढ़े। वे ट्रेन के फर्स्ट क्लास के कूपे में थे।
कूपे में दो ही व्यक्ति यात्री सफर कर सकते हैं। उन दोनों यात्रियों में से एक बड़ा
सेठ था और दूसरा चोर। वह चोर उस कूपे में महज उस सेठ का धन चुराने के इरादे से बैठा
हुआ था।
जब ट्रेन चलनी शुरू हुई तो आपस में उन दोनों ने दुआ-सलाम किया। पहले
शिष्टाचार के बाद दोनों ने अपने-अपने बिस्तर लगा लिए। चोर की हैरानी की तब कोई सीमा
नहीं रही जब उसके सामने ही सेठ ने अपने सारे रुपये निकालकर गिनने शुरू कर दिए। वह
तो नोट गिनता रहा और चोर टॉयलेट के लिए चला गया। चोर के लौट आने के बाद सेठ जी
हाथ-मुंह धोने चले गए। सेठजी जब कूपे से निकले तो खाली हाथ थे। इसलिए चोर को पता था
कि सेठजी अपने साथ रुपये लेकर नहीं गए। चोर ने फटाफट अपना काम शुरू कर दिया, पर
हैरानी की बात थी कि चोर को कहीं भी रुपये नजर नहीं आए। कुछ देर बाद सेठजी लौट आए
और खर्राटे मार कर सोने लगे। चोर ने सारी रात पूरे डिब्बे को छान मारा, लेकिन उसे
कहीं रुपये नहीं मिले। जबकि उसे पक्का यकीन था कि रुपए इसी कूपे में कहीं रखे हुए
हैं।
इस उलझन में चोर पूरी रात सो नहीं पाया। सुबह हुई, दोनों ने फिर
दुआ-सलाम की। चोर बेचैन था, उसने पूछ ही लिया- महाराज, मैं एक चोर हूं और इस ट्रेन
में सिर्फ चोरी के मकसद से आया था। रात भर मैं रुपये खोजता रहा, वे कहीं नजर नहीं
आए। रुपये छुपाकर आखिर रखे कहां?
सेठजी ने मुस्कराते हुए कहा- मुझे पहले ही
पता था, तू एक चोर है और यहां चोरी करने ही आया है। इसलिए रुपये मैंने ऐसी जगह रख
दिए जहां तू कभी खोजता नहीं। देखते देखते सेठजी ने झट से अपना हाथ चोर के सिरहाने
की ओर बिस्तर के नीचे डाला और सारे रुपये निकाल लिए। आज यही हाल पूरी मानवता का हो
गया है। हम सब सुख की खोज के लिए इस जीवन रूपी ट्रेन के सफर में विराजमान हैं। हर
कोई दूसरे से सुख पाने की तलाश में बैठा हुआ है। इंसान भीख का कटोरा लेकर सुख ढूंढ
रहा है या फिर जोर जबर्दस्ती कर के सुख की पूंजी को एकत्र करने के लिए हैरान-परेशान
हो रहा है।
असल बात यह है कि सुख तो सिर्फ आपके भीतर विराजमान आत्मस्वरूप
प्रभु में ही है। चाहे आप सारे दिन-रात एक कर लें, तब भी संसार में कहीं सुख नहीं
मिलेगा। आत्मस्वरूप प्रभु की शरण में पहुंचें, तभी सनातन सुख का आभास होगा।
Jai Guruji.
E-mail: birendrathink@gmail.com
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