Saturday, June 21, 2014

हिंदी पर हंगामा

आखिर हिंदी को प्रोत्साहन देने के लिए उठाया गया कोई कदम इस राजभाषा को गैर हिंदी भाषी राज्यों पर थोपने के रूप में कैसे देखा जा सकता है? दुर्भाग्य से कुछ राजनेता इसे न केवल इसी रूप में देख रहे हैं, बल्कि एक अनावश्यक विवाद खड़ा करने की अतिरिक्त कोशिश भी कर रहे हैं। इस पर आश्चर्य नहीं कि मोदी सरकार की ओर से हिंदी को बढ़ावा देने के फैसले की खबर सार्वजनिक होते ही उसके विरोध के स्वर सबसे पहले तमिलनाडु में उठे। राजनीतिक तौर पर पस्त हो चुके द्रमुक के मुखिया करुणानिधि ने केंद्र सरकार के फैसले को एक अवसर के रूप में देखा। उन्होंने केंद्र सरकार के फैसले की व्याख्या इस रूप में कर डाली कि वह गैर हिंदी भाषी लोगों में भेदभाव पैदा करने के साथ ही उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश कर रही है। यह एक शरारतपूर्ण व्याख्या है और इसका उद्देश्य लोगों की भावनाएं भड़काना है। चूंकि तमिलनाडु में हिंदी विरोध को भुनाना आसान है इसलिए वहां के अन्य राजनीतिक दलों ने भी द्रमुक के रास्ते पर चलने में देरी नहीं की। अन्नाद्रमुक की नेता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने जहां मोदी को चिट्ठी लिखकर यह दिखाने की कोशिश की कि वह इस मसले पर करुणानिधि से पीछे नहीं हैं वहीं भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने वाले राजनीतिक दलों के नेता भी गर्जन-तर्जन करते दिख रहे हैं। इस सिलसिले में कांग्रेस नेता पी. चिदंबरम की यह सलाह भी गैरजरूरी है कि इस संवेदनशील मसले पर सावधानी बरतने की जरूरत है। यह न तो संवेदनशील मसला है और न ही इस पर किसी सावधानी की जरूरत है। हिंदी पर यह व्यर्थ का हंगामा न केवल अनावश्यक है, बल्कि अशोभनीय भी, क्योंकि गृह मंत्रलय की ओर से सभी मंत्रलयों और सार्वजनिक उद्यमों से इतना भर कहा गया है कि वे सोशल मीडिया के आधिकारिक अकाउंट में हिंदी को प्राथमिकता दें। एक अन्य फैसले के तहत यह भी कहा गया है कि हिंदी में काम करने वाले कर्मचारियों को कुछ प्रोत्साहन राशि भी प्रदान की जाए। किसी भी फैसले में ऐसा कहीं कुछ इंगित नहीं किया गया है कि हिंदी का इस्तेमाल करना अनिवार्य है अथवा जो अधिकारी-कर्मचारी सरकारी कामकाज हिंदी में नहीं करेंगे उन्हें हतोत्साहित किया जाएगा। आखिर इस सबके बावजूद हिंदी को लेकर हायतौबा करने का क्या मतलब? यदि हिंदी को भारत में ही प्रोत्साहन नहीं मिल सकता तो और कहां मिलेगा? यह ठीक नहीं कि संकीर्ण राजनीतिक कारणों से जैसा रवैया तमिलनाडु के नेताओं ने अपना लिया है वैसा ही कुछ अन्य राज्यों के नेता भी प्रदर्शित कर रहे हैं। उनकी ओर से यह सिद्ध करने की कोशिश हो रही है कि गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी थोपी जा रही है। बेहतर हो कि जिन नेताओं को केंद्र सरकार के निर्णयों में खामी दिख रही है वे उन्हें एक बार पुन: पढ़ें। इन नेताओं को यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि इस देश में हिंदी को सरकारी कामकाज में प्रोत्साहित नहीं किया जाएगा तो फिर अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के आगे बढ़ने का प्रश्न ही नहीं उठता। भारतीय भाषाओं को उनका अधिकार तभी मिल सकता है जब पहले हिंदी को वह अधिकार मिले जो उसे बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। हिंदी के बहाने अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे नेता चाहे जैसे मनगढ़ंत आरोप लगाएं वे इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि अन्य भाषाओं और यहां तक कि अंग्रेजी की तुलना में हिंदी ही संपर्क की कहीं अधिक प्रभावी भाषा है।

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