Friday, April 4, 2014

कर्म निष्ठा

कर्म निष्ठा का अर्थ है कि हम जो भी कर्म करें, उसमें तन के साथ-साथ मन का भी पूरा योगदान हो।
एक लोककथा के अनुसार एक मंदिर के सामने नर्तकी का घर था। इसलिए मंदिर में नर्तकी के घुंघरुओं और वाद्य-यंत्रों का संगीत सुनाई पड़ता और मंदिर की आरती, घंटा व शंख की गूंज नर्तकी के घर तक पहुंचती। पुजारी का मन हर समय नर्तकी के घर में ही लगा रहता। यहां तक कि भगवान की पूजा, भोग और आरती के समय भी। पुजारी को अपना जीवन व्यर्थ लगता, जबकि नर्तकी लोगों के सामने अपना नृत्य-गान पूरे मनोयोग से करती। हां, जब वह खाली होती तो मंदिर, भगवान और पुजारी के बारे में सोचती। उसे पुजारी का जीवन धन्य लगता और अपना जीवन नारकीय लगता। संयोगवश दोनों की मृत्यु एक समय ही हुई। यमराज ने नर्तकी को स्वर्ग और पुजारी को नर्क ले जाने का आदेश दिया। पुजारी द्वारा इस आदेश का विरोध करने पर यमराज ने कहा कि तुममें अपने कर्म के प्रति निष्ठा नहीं थी। भगवान की पूजा करते समय भी तुम्हारा मन वहां नहीं रहता था, जबकि यह नर्तकी अपना नृत्य-कर्म पूरी निष्ठा और लगन से करती थी, इसीलिए तुम्हें नर्क में भेजा जा रहा है और इसे स्वर्ग में। सचमुच ऐसी पूजा-अर्चना व्यर्थ है, जिसमें मन चारों ओर नाचता फिरे। शुद्ध मन और ईमानदारी से की गई नौकरी और व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया जा सकता है। संत कबीर और रैदास का जीवन भी इस बात के जीवंत उदाहरण हैं। एक जुलाहे के घर में पले कबीर अपने मानवीय व आध्यात्मिक गुणों के कारण एक महान संत बन गए। इसके पीछे अपने व्यवसाय के प्रति कबीर की लगन भी थी। उन्होंने अपने पालित पिता के व्यवसाय को पूरी निष्ठा के साथ अपनाया था। चादर को बुनते समय उनका पूरा ध्यान उसके ताने-बाने पर रहता था। अपने इस कर्म को करते-करते कबीर ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझा था, तभी तो वह कह सके- ‘जस की तस रख दीनी चदरिया।’ इसी प्रकार संत रैदास ने मोचीगिरी करते हुए अपनी कठौती के जल से गंगा में खोए हुए एक स्त्री के सोने के कड़े को निकाल कर दे दिया। इस प्रकार ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ का संदेश दिया। स्पष्ट है कि पूरी निष्ठाभाव से किया गया कर्म जीवात्मा और परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है। इसलिए हमें अपने कर्र्मो को पूरी निष्ठा से करना चाहिए। जय गुरुजी

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