Wednesday, March 26, 2014

दान की महिमा

सामान्य तौर पर प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को बेहतर और सुख-सुविधाओं से पूर्ण बनाने के लिए दिन-रात मेहनत करता है। दूसरों की सुख-सुविधाएं और धन को देखकर वह भी कामना करता है कि उसके पास भी धन के असीमित भंडार हों, लेकिन ऐसा होता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुरूप ही धन का अर्जन कर पाता है। प्रत्येक धर्म यह कहता है कि हर व्यक्ति को अपनी आय का कुछ हिस्सा दान अवश्य करना चाहिए। दान हमेशा फलता है और व्यक्ति को सुख-संपत्तिवान और वैभवशाली बनाता है। कई धनवान व्यक्ति दान की महत्ता समझते हैं। इसलिए वे लाखों-करोड़ों का दान करते हैं। दान की भावना प्रत्येक व्यक्ति के मन में होनी चाहिए। चाहे कोई व्यक्ति कम धन अर्जित करे या ज्यादा, अपनी हैसियत के अनुसार दान करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। आज अधिकतर लोगों में दान देने की भावना घट रही है। इसके साथ ही जो संपन्न व वैभवशाली लोग दान कर रहे हैं, उनमें से अनेक लोगों की भावना भी दान पर केंद्रित न होकर दान के प्रचार या दो टूक शब्दों में कहें तो इस पुण्य कृत्य के विज्ञापन पर रहती है। संपन्न लोगों को लगता है कि वे जितना अधिक दान देंगे, उनका उतना ही सम्मान होगा। अध्यात्म और धर्म उसी व्यक्ति को कर्मशील व गुणवान ठहराता है जो निष्पक्ष, निस्वार्थ और सद्भावना के वशीभूत होकर कार्य करता है। जब कार्य में स्वार्थ और पक्षपात आ जाता है तो वह कार्य सद्भावनापूर्ण नहीं रह जाता। एक बार कराची के प्रसिद्ध सेठ व समाजसेवी जमशेदजी मेहता से कुछ लोग चिकित्सालय के लिए चंदा मांगने आए। चिकित्सालय की प्रबंध समिति ने यह निर्णय लिया था कि जो दस हजार रुपए का दान देगा उसका नाम अस्पताल के मुख्य द्वार पर लगने वाले शिलालेख पर अंकित किया जाएगा। यह जानकर जमशेदजी मेहता ने मुस्कराकर रुपए प्रबंध समिति के सदस्यों को दे दिए। सदस्यों ने उन रुपयों को गिना तो पाया कि वे नौ हजार नौ सौ पचास रुपए थे। यह देखकर प्रबंध समिति के सदस्य कुछ बोलते, उससे पहले ही जमशेदजी मेहता बोले, ‘मेरे लिए इतना दान ही उत्तम है। मैं पूरे दस हजार रुपए देकर अपने नाम और दान का प्रचार व विज्ञापन नहीं करवाना चाहता। प्रचार से दान का महत्व नष्ट हो जाता है। महत्व चिकित्सालय के उद्देश्य से संबंधित होना चाहिए, न कि दानदाता से। जय गुरूजी, ॐ नमः शिवाय शिवजी सदा सहाये , ॐ नमः शिवाय गुरूजी सदा सहाये।

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