धर्म की स्थापना को एक साधारण मनुष्य केवल पूजा स्थलों की स्थापना से ही समझता है, जबकि इसके लिए धर्म शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। सृष्टि के प्रारंभ में मानव जीवन प्रारंभ हुआ और धीरे-धीरे मानव एक-दूसरे के संपर्क में आया। मानव जीवन को सुचारु रूप से चलाने और सृष्टि के विकास के लिए हर संप्रदाय के महापुरुषों ने आचरण संहिता बनाई, जिसका मुख्य उद्देश्य था कि मनुष्य का मनुष्य के प्रति इस प्रकार का व्यवहार हो जिसके द्वारा दूसरे मानव को पीड़ा न हो और प्रकृति का संरक्षण हो। उस समय आज के समान कानून की किताबें नहीं थीं और इसी आचरण संहिता को धर्म नाम से पुकारा जाने लगा। हर प्रकार की चोरी, झूठ बोलना, भावनात्मक और शारीरिक हिंसा और स्त्रियों के प्रति अभद्र व्यवहार कानून के अनुसार भी गलत हैं और इसी प्रकार से धर्म की दृष्टि से भी अनुचित है। इसलिए धर्म स्थापना का वास्तविक तात्पर्य है मनुष्य को उस मार्ग की ओर प्रेरित करना जिसके अनुसरण करने से वह परपीड़ा जैसे अपराध से बच सके। यह एक अटल सत्य है कि दूसरे को पीड़ा देने वाले को भी उतनी ही मानसिक पीड़ा बदले में मिलती है। हालांकि वह इसका प्रदर्शन नहीं करता, परंतु यह सब उसके मन में एकत्र होकर उसे मानसिक व्याधियों के साथ शारीरिक व्याधियां भी देती हैं। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है, दूसरों का हित करने से बड़ा कोई धर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा अधर्म या पाप कोई नहीं है। हित और पीड़ा ऐसे दो भाव हैं, जिनके द्वारा मानव व्यवहार के सकारात्मक और नकारात्मक भावों का पूरा चित्रण हो जाता है। दूसरों का हित करने वाला व्यक्ति सब प्राणियों में ईश्वर का दर्शन करते हुए परम आनंद का अनुभव करेगा और दूसरों को कष्ट देने वाला क्रोध, लोभ, मोह और ईष्र्या से ग्रस्त होकर ही दूसरों को कष्ट देने की सोचता है। इसी कारण मदर टेरेसा और विवेकानंद जैसे संतों ने प्राणियों की सेवा को ही ईश्वर माना। इसलिए पूजा स्थलों तक ही धर्म को सीमित न करके प्राणियों की सेवा का उदाहरण स्थापित करके धर्म की स्थापना सच्चे अर्थो में की जानी चाहिए। तभी उनसे प्रेरणा लेकर एक साधारण मनुष्य उनके मार्ग का अनुसरण करता हुआ सच्चा धार्मिक बन सके।
जय गुरूजी.
In English:
(Establishment of religion by establishing places of worship, a simple man only understands the meaning of the word it is necessary to understand the religion. Start at the beginning of the creation of human life and human gradually came into contact with each other. Creation and development of human life, carrying the code of conduct created by men of every sect, whose main aim was that this kind of behavior towards human beings which are not suffering to another human and nature to conserve . Today was not the same as the law books and the Code of Conduct came to be called religion. Every type of theft, lying, emotional and physical violence and abusive behavior towards women are wrong according to the law and as such is inappropriate in terms of religion. So the real meaning of religion is established to motivate the man to follow the path towards the allodynia to refrain from such crimes. It is a stark fact that the suffering of the other, in turn, get as much mental anguish. Although he does not perform, but it's all in his mind, he gathered with mental illnesses are physical diseases gives. Goswami Tulsidas's Ram Charit Manas said therefore, no religion than to the interests of others and give to others suffering from the greatest sin or no sin. 1 Interest and suffering are two expressions by which human behavior is depicted full of positive and negative emotions. Others see God in all beings the person's interest to give the ultimate experience of pleasure and pain to others, anger, greed, attachment and prone to jealousy and thinks of offending others. Therefore the saints like Mother Teresa and Vivekananda considered beings to serve God. Therefore, by not limiting the places of worship to religious creatures by setting an example of service should be established religion in the true sense. Taking inspiration from a simple man only had to follow their path to become true religious.)
Jai Guruji.
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