‘कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, वह यह कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता कि कोई उससे आगे बढ़े। तुम गरीब हो, तकलीफ में हो, अपमान से तिलमिला रहे हो, तो बहुत अच्छा। दया और सहानुभूति के मकराश्रु तुम्हें अवश्य मिलेंगे, और कुछ नहीं। तुम तरक्की की राह पर आगे बढ़े नहीं कि तुम्हारे शत्रुओं की सीमा बढ़ने लगती है। जिन्हें तुम जानते-बूझते नहीं, जिनसे तुम्हारा कुछ लेना-देना भी नहीं रहा, वह सब तुम्हारे दुश्मनों की कतार में आकर खड़े हो जाते हैं। तुम्हारे बड़प्पन के कारण जितना वह नहीं कर पाते उतनी ही उनकी कटुता बढ़ती रहती है। तुम गिरो, पड़ो, भुगतो मिट्टी में मिल जाओ तब उनकी छाती ठंडी होगी। कारण कुछ भी नहीं। तुम्हारा कसूर भी कुछ नहीं। वह तो बस मानव स्वभाव से उपजी ईर्ष्या है, और कुछ भी नहीं। इसके लिए कोई क्या करेगा?’ यह विचार हैं अंनत गोपाल शेवड़े के।
हमारे शास्त्रों में जिसे मनोविकार कहकर त्यागने की सलाह दी जाती है, उनमें से एक है - ईर्ष्या। शेख सादी ने तो यहां तक कहा है कि, ‘ईर्ष्यालु मनुष्य स्वयं ईर्ष्याग्नि में इतना जल जाता है कि उसे और जलाना व्यर्थ होता है।’ एक ईर्ष्या ही है जो दीमक की भांति हमारे सुखों को खोखला कर डालती है कि हमें इसका पता ही नहीं चलता। माना जाता है कि दुनिया में सबसे पहला अपराध ईर्ष्या से ही उपजा था। काइन ने अपने भाई हाबिल को मार डाला था।
ईर्ष्या हमारे व्यक्तित्व व संपूर्ण सुखों के मार्ग की एक बड़ी बाधा है। दूसरों की महानता या असफलता को जब हम पचा नहीं पाते तो उनसे हम ईर्ष्या करने लगते हैं। संत क्रिसोस्तम का वचन है कि जिस प्रकार कीट वस्त्रों को कुतर डालता है, उसी प्रकार ईर्ष्या मनुष्य को नष्ट कर डालती है। डॉक्टर कहते हैं कि ईर्ष्या का आवेश हमारे शरीर की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया को विकृत कर डालता है। उसे रोकने की चेष्टा करें तो वह मन को और भी आहत कर देता है।
ऐसी स्थिति में विलियम पेन कहते हैं कि ‘ईर्ष्या करने वाले दूसरों को तो कष्ट देते ही हैं, पर स्वयं को तो वह महाकष्ट देते हैं।’ जो वस्तु हमारे पास नहीं, दूसरे के पास क्यों है? यही बात ईर्ष्या को जन्म देती है। ईर्ष्या करने वाले सब जगह हैं। वह व्यापार, औलाद, शिक्षा, प्रेम, राजनीति, धन-दौलत, स्वास्थ्य, सौंदर्य आदि हर क्षेत्र में फैला है।
सोचने वाली बात है कि जब हम किसी दूसरे का विनाश करना चाहते हैं तो अन्ततः स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। संत तिरूवल्लुवर कहते हैं कि ‘ईर्ष्या करने वाले के लिए ईर्ष्या की बला ही काफी है क्योंकि उसके शत्रु यदि उसे छोड़ भी दे, तो उसकी ईर्ष्या ही उसका सर्वनाश कर देगी।’ मनुष्य यदि ईर्ष्या से मुक्ति पाना चाहता है तो उसे प्रेम में यकीन करना होगा। प्रेम और सौहार्द ही ऐसे रास्ते हैं, जिनसे गुजरकर ईर्ष्या के दानव से आसानी से बच सकते हैं।
जय गुरूजी.
("No matter how great may be, he can not stand it never went beyond that. You poor, the suffering, the humiliation are daze, then great. Mkrasru kindness and compassion you will be meeting, and nothing else. You do not move forward on the path of progress that increases the range of your enemies. Bujte the you-know-not, I am not concerned that you, all that you come and stand in line to become enemies. Because of your generosity as much as she can not grow as much of their bitterness. You Fall, fall, suffer chest cold and will go into the earth. Because nothing. Your fault nothing. That's just human nature stems from envy, and nothing. For it will do? "This idea of Annt Sevde Gopal.
Our scriptures say that dementia is advised to discard one of them - jealousy. shows. It is believed that the world was the first crime stems from jealousy. Cain killed his brother Abel.
Envy the pleasures of our personality and is a major obstacle in the way. Greatness or failure of others when we are baffled them so we seem to envy. Saint Chrysostom pledged that way puts Kutr clothes moth, so jealousy destroys man throws. The doctor says that the charge of envy distort our body's innate natural process puts. When he tried to stop her hurting heart and turns.
William Penn in a situation that "envy others who are so painful, so he Mahaksht attach themselves." The thing we do not have, why have another? This gives rise to envy. Who are jealous everywhere. Business, children, education, love, politics, wealth, health, beauty, and spread in every area.
Is there to think that we want to exterminate the other end, are automatically destroyed. Will happen. The only way to love and harmony are just passing by the demon of jealousy can easily escape.)
Jai Guruji.
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