गुरु अच्छी तरह जानते हैं कि जब तक उनसे सुना ज्ञान शिष्य अपने मुख से आगे किसी एक जिज्ञासु को बताना शुरू नहीं करेगा, तब तक उसका ज्ञान पक्का होना मुश्किल होगा।
बार-बार ज्ञान सुनने से हम ज्ञान के शब्दों को तो पक्का कर लेंगे, लेकिन जीवन में नहीं उतार पाएंगे। ज्ञान के शब्द ज्ञान नहीं होते, उन्हें ज्ञान में बदलना होता है। गुरु के वचनों पर चलकर ज्ञान को जीवन में उतारना होता है। इसके लिए ज्ञान बोलना एक सरल तरीका है।
गुरु के कहने पर जब शिष्य ज्ञान बोलना शुरू करता है, तब उसके लिए थोड़ी तैयारी करता है। गुरु द्वारा बताए ज्ञान के नोट्स और शास्त्र पढ़ना शुरू करता है ताकि सुनने वाले को अच्छी तरह समझाया जा सके और उसके प्रश्नों के उत्तर दिए जा सकें। फिर जब ज्ञान के शब्द शिष्य बोलता है, तब वे शब्द दिन में मन में चलने लगते हैं। इस प्रकार शिष्य का मन ज्ञान में पक्का होने लगता है।
इसको गीता में भगवान कहते हैं कि जो पुरुष मुझमें परम भक्ति करके इस परम गोपनीय गीता ज्ञान को मेरे भक्तों को कहेगा, वह मुझको ही प्राप्त होगा। अतः ज्ञान को सुनाना निष्काम कर्मयोग का मुख्य अंग है।
लेकिन गुरु के कई बार कहने पर भी शिष्य आगे ज्ञान देना शुरू नहीं कर पाता, क्योंकि उसके मन में यह रहता है कि पहले मैं ज्ञान से पूरी तरह भर तो जाऊं। ज्ञान
की बारीकियां तो जान लूं, ज्ञान को सीख तो लूं। कुछ शास्त्र पढ़कर उनको याद तो कर लूं, फिर ज्ञान बोलना शुरू करूंगा। यदि अभी से ज्ञान बोलना शुरू किया और सामने वाले के प्रश्न का उत्तर न दे पाया तो बेइज्जती हो जाएगी। ऐसे ख्याल मन में आने से ज्ञान सुनाने की बात कल पर टाल दी जाती है।
वर्षों तक गुरु से ज्ञान लेने के बावजूद शिष्य को लगता रहता है कि अभी ज्ञान सुनाने लायक नहीं हुआ हूं। जो शिष्य आगे ज्ञान सुनाने लगते हैं, वे ज्ञान में तेजी से बढ़ने लगते हैं। ऐसे में उन शिष्यों को अहंकार न हो जाए, इससे सतर्क रहना चाहिए। लेकिन जो शिष्य ज्ञान सुनाना शुरू नहीं करते उनकी आध्यात्मिक उन्नत्ति शीघ्र नहीं हो पाती।
शिष्य ज्ञान सुनाता है तब किसी और को नहीं, बल्कि सबसे पहले स्वयं को ही सुनाता है। पहले उसके कान ही सुनते हैं, बाद में सामने वाला सुनता है। जब हम अपने द्वारा बोला गया ज्ञान खुद बार-बार सुनते हैं, तब वह ज्ञान हमारे अंदर और
भी पक्का होने लगता है और पता नहीं लगता कि कब शिष्य उस ज्ञान पर चलना भी शुरू कर देता है। अतः जो भी गुरु से ज्ञान सुनते हैं, उसको और सरल करके अपने शब्दों में जिज्ञासु को सुनाना शुरू कर देना चाहिए। इससे अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़ना प्रारंभ हो जाएगा।
जय गुरूजी.
In English:
(Master knew well ahead of their home until they heard a curious disciple knowledge will not begin to tell, until then his knowledge would be difficult to be sure.
We frequently hear the wisdom words of wisdom will for sure, but not in life will take. Words of wisdom are not wisdom, would turn them into knowledge. Following the words of the master knowledge in life is to take off. This is a simple way to utter knowledge.
When the disciples began speaking at the behest of the master knowledge, he does the little preparation. The notes indicated by the master knowledge and start reading the scriptures so that the listener is well explained and questions answered said. Then the disciple speaks words of wisdom, words day in mind when they start running. Thus, knowledge of the disciple's mind seems to be a man.
God says in the Gita that this guy by me, the ultimate devotion to the most confidential knowledge of the Gita say my devotees, he will receive me. So knowledge is central to recite Karmayoga selfless.
But when asked several times to master the knowledge of the pupil can not start, because in his mind it is completely filled with the knowledge that if I go back. Knowledge
May know the nuances of, if I may learn wisdom. For I have something to remember them by reading the scriptures, then wisdom will start talking. If you just started speaking knowledge and found the front of the insult will not answer the question. Comes to sharing knowledge that comes to mind is off on Monday.
Despite years of knowledge from master to disciple is think that just have not been able to tell knowledge. Which seem to tell the disciples the knowledge, they begin to grow rapidly in knowledge. The pupils who do not become arrogance, it must remain vigilant. But do not start telling their spiritual disciple knowledge Unntti fade quickly.
Then somebody else tells pupil knowledge, but first tell itself. Before his ear to hear, hears the front. When we hear repeatedly uttered by the knowledge itself, and the knowledge within us and
Seems to be confirmed when the pupil does not know and walk in the knowledge starts. So whatever knowledge from master to hear, curious to hear him and to his simple should start. It will start to move forward in the spiritual path.)
Jai Guruji.
No comments:
Post a Comment